शूद्र वर्ण योजना

शूद्र वर्ण योजना

"तपसे शूद्रम्।"
(शतपथ ९/३/१/२५/)

"तपो वै शूद्रः।
तप एव तत्तपसा समर्द्धयति।।"
(यजुर्वेद ३० / ५, शतपथ १३/६/२/१०/)

√●मंत्र का अर्थ करने के पहले शूद्र पद का अर्थ और तप पद का अर्थ विचार कर लेना चाहिए। 'शोचतेर्ज्वलतिकर्मणः"(निघण्टु १/१६ ) इस ज्वलतिकर्मा शुच् धातु से 'शुचेर्दश्च"(उणादि २/१९/) इस सूत्र से 'शु' के उकार को दीर्घ और 'रक्' प्रत्यय 'और 'द' करने से शूद्र शब्द बनता है। "शोचति, ज्वलति, प्रकाशते, स्वश्रमेण यः सः शूद्रः।"

√●जो अपने श्रम के द्वारा जलता है, प्रकाशित होता है, शूद्र कहा जाता है। उसी प्रकार से निघण्टु में कही गयी 'तप ज्वलने', 'तप ऐश्वर्ये'(निघण्टु १/१७/) धातुओं से अपने ही अर्थ में 'सर्वधातुभ्योऽसुन्'(उणादि ४ / १९०) सूत्र से 'असुन्' प्रत्यय करने से तप शब्द बनता है। "तापयति ज्वालयति अकर्मण्यतां शत्रून् वा येन तत्तपः"। जिसके द्वारा अकर्मण्यता को और शत्रुओं को जलाया जाता है, वह तप है। अथवा "तप्यते समर्थो भवति येन तत्तपः" जिस श्रम के द्वारा अपने लक्ष्य को सिद्ध करने में व्यक्ति समर्थ होता है, वह श्रम ही तप है। क्योंकि श्रम से ही सामर्थ्य आता है, इसलिए श्रम ही तप है। जैसा कि श्रुति कहती है- "तपसा वै लोकं जयन्ति ।"(शतपथ ३/४/४/२७/)

√●तप के द्वारा ही, श्रम के द्वारा ही संसार की सभी वस्तुओं को जीत लिया जाता है।

"तद्धि जातं यत् तपसोऽधिजायते ।"
(काठकसं. ३४/१२/)

√●वही पैदा हुआ, जो तप से पैदा किया गया, श्रम से पैदा किया गया, अर्थात् अपने श्रम से पैदा किया हुआ अन्न-धन ही श्रेष्ठ उत्पादन है। श्रुति के इसी तथ्य को लोकोक्ति में भी कहा जाता है—

"श्रम का खाता हूँ, दान का नहीं।"

√●●अब मंत्र के अर्थ पर विचार करते हैं—

राष्ट्र की समृद्धि के लिए, कर्मों के उत्कर्ष के लिए, लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए, अन्न उत्पादन, संचरण, वितरण आदि कर्मों के अतिरिक्त, जीवन में आवश्यक शिल्पादि कर्मों के स्वतंत्र विकास के लिए, सभी कर्मों के आधारभूत जिस प्रकार के आवश्यक श्रेष्ठ श्रम की, तप की, आवश्यकता होती है, उस प्रकार के तप के लिए, उस प्रकार के तप श्रम करने की सामर्थ्य से सम्पन्न श्रमिक, तपस्वी अर्थात् शूद्र को राष्ट्राध्यक्ष राजा या उस प्रकार के कार्य को सम्पन्न करने के लिए गठित की गयी प्रशासनिक सभा (आलभते) भलिभांति प्राप्त करती है, अर्थात् उस प्रकार के कर्म में नियुक्त करती है।

√●"तपो वै शूद्रः ।" "निश्चय ही, लक्ष्य प्राप्ति के लिए किया जाने वाला श्रम ही, तप ही, शूद्र है।"

"तप एव तत्तपसा समर्द्धयति ।"

"उस तपस्वी के द्वारा किये जा रहे तप से, वह तप ही समृद्ध होता है।"

√●जिस कार्य को लक्ष्य करके तपस्वी श्रमिक, अर्थात् शूद्र के द्वारा जो तप श्रम किया जाता है, उस श्रम के द्वारा वह श्रमिक तपस्वी उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् वह कार्य सफल हो जाता है। इस तपस्वी-श्रमिक-शूद्र के द्वारा किये जा रहे तप अर्थात् श्रम से लक्ष्य की सिद्धि के साथ ही उस तपस्वी अर्थात् श्रमिक की समृद्धि होती है, राष्ट्र की समृद्धि होती है। इस प्रकार कार्य की सिद्धि, तपस्वी श्रमिक की समृद्धि, राष्ट्र की समृद्धि, में यह तप ही समृद्ध होता है।

√●इस शूद्र वर्ण का क्या प्रयोजन है? ब्राह्मण वर्ण की व्यवस्था के द्वारा सभी लोगों की शिक्षा की व्यवस्था की गयी। क्षत्रिय वर्ण के द्वारा सभी लोगों के पालन, रक्षण और दुष्टों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गयी। उसी प्रकार वैश्य वर्ण के द्वारा सभी भोग्य वस्तुओं के उत्पादन एवं व्यापार की व्यवस्था की गयी। सामान्य जन भी कृषक एवं वैश्य कहा गया है। इस प्रकार से सभी कर्मों की व्यवस्था होने के कारण इस शूद्र वर्ण का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता, ऐसी शंका का समाधान श्रुति स्वयं करती है।

"स नैव व्यभवत्स शौद्रं वर्णमसृजत पूषणमियं (पृथिवी) वै पूषेयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च ।"
(शतपथ १४/४/२/२५, बृहदारण्यक १/४/१३)

√●"सः " - वह ज्ञानियों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण की व्यवस्था से युक्त किया गया समाज "नैव व्यभवत्"- अपेक्षित वैभव को नहीं प्राप्त हो सका, क्योंकि कृषि के कार्य में हल और फाल की आवश्यकता होती है, दैनिक व्यवहार में बर्तन की आवश्यकता होती है, रक्षा करने के लिए शस्त्र आदि की आवश्यकता होती है। वस्तुओं को लाने और ले जाने के लिए वाहन की आवश्यकता होती है, सबके लिए भवन, वस्त्र, आभूषण आदि की आवश्यकता होती है, यह सभी कार्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में व्यवस्थित नहीं किये गये थे, इनकी सुव्यवस्थित व्यवस्था न होने के कारण केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण की संरचना से यह समाज अपेक्षित वैभव को नहीं प्राप्त कर सका। इसलिए इस प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति के लिए उस ज्ञानी विमर्शशील समुदाय ने, उस प्रकार के कार्य- सम्पादन में सक्षम "शौद्रं वर्णमसृजत" शौद्र वर्ण का गठन किया अर्थात् शौद्र - जो श्रम से उत्पन्न हो वह शौद्र है। ऐसे श्रम के द्वारा अपनी पहचान बनाने वाले, श्रम करने में समर्थ श्रमिक वर्ग अर्थात् शौद्र वर्ण की रचना की। शूद्र ही शौद्र है, अपने ही अर्थ में "अण्” प्रत्यय करने से आदि वृद्धि होकर शूद्र से शौद्र शब्द बना है। अपने कुशल श्रम के द्वारा, उपर्युक्त हल, फाल, वस्त्र, आभूषण, घर आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करता हुआ जो सभी लोगों की इन आवश्यकताओं का पोषण करता है, वही शौद्र वर्ण है। उस शूद्र वर्ण का प्राकृतिक दैवीय रूपक के द्वारा श्रुति ज्ञान कराती है। "इयं (पृथिवी) वै पूषा''- निश्चय ही यह पृथ्वी ही पूषा है। “इयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च'"- यह पृथ्वी ही इस सबका पोषण करती है, जो कुछ भी इस पृथ्वी पर है।

√●जिस प्रकार यह पृथ्वी सबका पोषण करती है, उसी प्रकार श्रम भी सभी कर्मों का पोषण करता है। और श्रमिक-शूद्र वर्ण भी सभी प्रकार के हल, फाल, पात्र, वस्त्र, आभूषण के द्वारा और उन-उन कार्यों में लग कर अपने शारीरिक श्रम के द्वारा सबका पोषण करता है। इसलिए पृथ्वी देवता शूद्र वर्ण का उदाहरण है। श्रम ही सभी कर्मों का आधारभूत होने के कारण सभी कर्मों की प्रतिष्ठा है, इसलिए वैदिक राष्ट्रात्मा राजा सिंहासनारूढ़ होने से पहले अपनी शपथ में घोषणा करता है-

"पद्भ्यां जङ्घाभ्यां धर्मोऽस्मि, विशि राजा प्रतिष्ठितः ।"
(यजुर्वेद २० / ९)

√●“पाँवों और जाँघों से मैं धारण करने का सामर्थ्य धर्म हूँ, इसलिए प्रजा में प्रतिष्ठित राजा हूँ।”

√●●इसी बात को श्रुति इस प्रकार कहती है-

"एषु लोकेषु प्रतितिष्ठति य एवं वेद।"
(ताण्ड्य ६ / २ / ११)

"जो शूद्र वर्ण की संरचना के इस रहस्य को इस प्रकार जानता है, वह लोक में अपने सभी कर्मों में प्रतिष्ठित होता है। "

√●यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी शिल्पों की स्वतंत्र स्थापना के लिए शूद्र वर्ण की रचना की गई? इस विषय में क्या प्रमाण है?

√● बताते हैं, वेद ही प्रमाण हैं, देखें ये वेद मंत्र-

"तपसे कौलालम्।"
(यजुर्वेद ३०/७१)

√● तप के लिए कौलाल को भलीभाँति प्राप्त किया जाता है। 【कुं मृत्तिकां लालयति इति कुलाकः, कुलालादेव कौलालः तम् कौलालम्,】 अर्थात् जो मिट्टी के साथ खेलता है वह कुलाल है और कुलाल से ही कौलाल कहा गया। कुलाल अर्थात् कुम्हार श्रम करके तालाब की मिट्टी को अच्छी तरह तैयार कर फिर उस मिट्टी से चाक एवं दण्ड द्वारा अपने कलाकौशल से विविध प्रकार के बर्तन तैयार करता है। इस मंत्र से वेद ने स्पष्ट कर दिया कि सभी शिल्प शूद्र वर्णविभाग के अन्तर्गत आते हैं। जैसे- कुलाल-कुम्हार आदि।

त्रिस्कन्धज्योतिर्विद्