जाति और वर्ण का ऐक्य - अशास्त्रीय कर्मणा वर्णव्यवस्था के बहाने सनातनधर्म पर मधुर प्रहार

अधिकतम बड़े नामवाले अशास्त्रीय कपटी कथावाचकों के द्वारा वर्णव्यवस्था जैसे अनेक गम्भीर सनातनसिद्धान्तों पर तीक्ष्ण कुठारप्रहार किया जा रहा है। विशेषत: सेक्युलरिज्म की चादर ओढ़कर बड़ी मधुरता से कुछ प्रसिद्ध उपदेशकों के द्वारा जाति और वर्ण में भेद दिखाया जा रहा है

जाति और वर्ण का ऐक्य - अशास्त्रीय कर्मणा वर्णव्यवस्था के बहाने सनातनधर्म पर मधुर प्रहार

पण्डित गङ्गाधर पाठक

अधिकतम बड़े नामवाले अशास्त्रीय कपटी कथावाचकों के द्वारा वर्णव्यवस्था जैसे अनेक गम्भीर सनातनसिद्धान्तों पर तीक्ष्ण कुठारप्रहार किया जा रहा है।

विशेषत: सेक्युलरिज्म की चादर ओढ़कर बड़ी मधुरता से कुछ प्रसिद्ध उपदेशकों के द्वारा जाति और वर्ण में भेद दिखाया जा रहा है (ऐसे बहुत से प्रकरण हैं)। यद्यपि इन दोनों शब्दों की परिभाषा भी ये लोग नहीं बता सकते, तथापि पवित्र व्यासपीठ से गलत सन्देश देते रहते हैं।

वर्ण और जाति में अभेद दिखाने हेतु मात्र एक-दो प्रमाणवाक्य रखता हूँ-‌‌“ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः। चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः।। सर्ववर्णेषु तुल्यासु पत्नीष्वक्षतयोनिषु। आनुलोम्येन सम्भूता जात्या ज्ञेयास्त एव हि।।" (मनुस्मृति १०।४-५)‌‌ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीन वर्ण द्विजाति (मातृगर्भ से और यज्ञोपवीत से दो बार जन्म लेनेवाले) हैं, चौथा वर्ण शूद्र तो एकजाति (एकबार ही जन्मने वाला- यानी उपनयन से रहित) है, पाँचवाँँ नहीं।

ब्राह्मणादि सभी वर्णों में समान वर्णवाली अक्षतयोनि पत्नियों में शास्त्रानुकूल रूप में उत्पन्न जो सन्तान हैं, वे जाति से या जन्मना पिता-माता की जाति के होते हैं।‌‌"सवर्णेभ्य: सवर्णासु जायन्ते हि सजातय:। अनिन्द्येषु विवाहेषु पुत्रा: सन्तानवर्द्धना:।।"‌‌(याज्ञवल्क्यस्मृति १।९०)‌‌सवर्ण पुरुषों द्वारा प्रशस्त ब्राह्म आदि विवाहों से ग्रहण की गई सवर्णा यानी समान वर्ण की स्त्रियों में उत्पन्न पुत्र सजाति यानी जन्मना उसी वर्ण के होते हैं और ऐसे पुत्र ही सन्तानवर्द्धक अर्थात् अरोगी, दीर्घायु और धर्मसन्तान के बढ़ानेवाले होते हैं।

प्रकरणभेद से एक शब्द के अनेक अर्थ भी होते हैं, परन्तु भोजन के समय 'सैन्धव' का अर्थ नमक और युद्ध के समय घोड़ा ही होना निश्चित है।‌

‌  पुन: इनके अनुसार जन्म से या कभी भी सेवा करनेवाले सभी लोग केवल शूद्र ही कहलाने के अधिकारी होते हैंं। जो भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों ने आजतक इन उपदेशकों की सेवा की हैं, वे सभी श्रद्धालु ओझाजी आदि के द्वारा शूद्र ही सिद्ध कर दिये गये। इन लोगों ने माता, पिता, गुरु या रोगी आदि की सेवा करनेवाले को भी केवल शूद्र ही सिद्ध कर दिया है। धर्मप्राण राष्ट्र में सेवावृत्ति (नौकरीपेशा) वाले जितने भी द्विज हैं, इनके अनुसार सभी शूद्र ही सिद्ध हो जायँगे।

संसार में कोई भी ऐसा नहीं है जो किसी न किसी प्रकार से किसी की सेवा न करता हो; ऐसी परिस्थिति में इन उपदेशकों की दृष्टि में सभी शूद्र ही हैं। उपदेशकों की ऐसी परिभाषा मानने पर द्विजमात्र का अस्तित्व ही समाप्त मानना पड़ेगा।

ये लोग श्रीमद्भगवद्गीता (४।१३) के भगवद्वचन "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम्"  का सामान्य अर्थ भी नहीं लगा सकते, तथापि अनधिकृतरूपेण सार्वजनिक व्याख्यानोपदेश देते रहते हैं। जिज्ञासु गीता (४।१३) के विविध प्रामाणिक भाष्यों को देखें।

यदि ये "गुणकर्मविभागश:" के स्वकल्पित अर्थ के अनुसार कर्मणा वर्णव्यवस्था सिद्ध करेंगे, तो किसी के जन्म के कितने वर्षों के बाद उसके गुण-कर्मों का परीक्षण निश्चित होगा और उसे किसी महाशय के द्वारा निर्धारित कोई अनिश्चित या अल्पकालिक वर्ण मिलेगा? पुन: उससे पहले उसका क्या वर्ण माना जायगा? वर्णनिर्धारण का ठेकेदार कौन होगा? गुणकर्मानुसार कितने वर्षों में अमुक-अमुक वर्णों के सोलह संस्कारों का निर्णय किया जायगा?

श्रीराम, श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर आदि ज्ञानोपदेश में दक्ष होते हुए भी क्षत्रिय ही क्यों रह गये? द्रोणाचार्य आदि महान् धनुर्धर योद्धा होते हुए भी क्षत्रिय क्यों नहीं हुए? रावण आदि दुर्दान्त आततायी और भयंकर योद्धा होने पर भी क्षत्रिय क्यों नहीं कहाये? विदुर और धर्मव्याध आदि धर्मशील सत्पात्र ब्राह्मण के रूप में क्यों नहीं प्रसिद्ध हो गये? जो जन्मना जहाँ थे, गुण-कर्मानुसार वही सम्मानित हुए।

भगवान् ने भी पहले "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम्" ही कहा है, पुन: वर्णानुसार उनके गुण-कर्मों को निर्धारित किया है।

किसी के एक ही जन्म में सैकड़ों बार गुण-कर्मों में परिवर्तन होते रहें (जो स्वाभाविक है), तो एक ही जन्म में सैकड़ों बार किसी का वर्णपरिवर्तन कितना न्यायोचित है? कुछ समय के लिये कोई ब्राह्मणादि के गुण-कर्म वाले हो जायँगे तो वे यज्ञोपवीतादि धारण करेंगे, पुन: कभी चतुर्थ वर्णवाले के गुण-कर्म हो जाने से यज्ञोपवीतादि फेंक देंगे? पुन: ब्राह्मणादि के गुणकर्म वाले होने पर पहन लेंगे? किसी पुरुष के गुणकर्म शूद्र वाले हो जायँगे और उसकी पत्नी सात्त्विक बुद्धि की होगी, तो परस्पर में पति-पत्नी के वर्ण में भेद माना जायगा? यदि उस दुष्ट सुधारक के चार बेटे चार गुणकर्म वालें हैं तो परस्पर में सबके वर्ण अलग-अलग होंगे? ओझाजी जैसे उपदेशक महाशय अवश्य ही इन प्रश्नों तथा ऐसे अन्य भी अनेक प्रश्नों के उत्तर दें। ऐसी जिज्ञासायें सनातनी श्रोताओं को अवश्य ही करनी चाहिये।

देवता, दानव, पशु, पक्षी, वृक्ष, रत्न, मिट्टी और धातु आदि में भी शास्त्रोक्त वर्णव्यवस्था होती है; इनके कुत्सित वैदुष्य के अनुसार गुणकर्मानुसार इन सबका वर्णविधान कैसे और कितने दिनों में निश्चित किया जायगा?

किसी वर्ण में अन्य वर्णों के गुण होने के कारण कदाचित् गौणी वृत्ति से उसे अन्य वर्णवाला बोल दिया जाता है, मुख्यतया नहीं। कभी गुण-कर्मानुसार किसी मनुष्य को "मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति" पशु कह देने से वह मनुष्य वास्तव में चार पैरवाला पशु ही नहीं हो जाता। ये उपदेशक लोग भी दिनरात ठेका पर कथारूप सेवा करने से स्वयं को शूद्र के रूप में क्यों नहीं प्रसिद्ध कर रहे हैं? यद्यपि आज महानगरों एवं तीर्थों में बहुत से ब्राह्मणेतर या द्विजेतर छलपूर्वक ब्राह्मणश्रेष्ठ उपदेशक बनकर भी रह ही रहे हैं, जो सनातनसमाज के लिये केवल धोखा है।

शुद्ध सनातनियो! सनातनसिद्धान्तों के साथ इस प्रकार की कई छेड़खानियाँ की जा रही हैं। कथाव्यासों एवं कर्मकाण्डियों की योग्यता तथा प्रवृत्ति को जानकर ही उन्हें अवसर दिया जाना चाहिये, तभी ये लोग शास्त्रों में यथोचित श्रम का प्रयास करेंगे।

कहीं भी कथा या यज्ञादि हेतु बातचीत (फाइनल) के समय ही सार्वजनिक प्रश्नोत्तर के लिये कम से कम एक या दो घण्टे समय भी निश्चित किये जायँ, जिस समय श्रद्धालु श्रोता लोग खुलकर वक्ता और पण्डितों से विषय से सम्बन्धित प्रश्न पूछें और समाधान लें।

जब अभी धर्मशुद्धीकरण और व्यासपीठशुद्धीकरण की हवा चल ही रही है तो सचेष्ट होकर सबका परिमार्जन करते ही चलो; अन्यथा विविध अधार्मिक हिन्दुसंघटन एवं धर्मनिरपेक्ष सत्ता के ये चमचे सनातनधर्म को रसातल में डुबा देंगे। जहाँ से पुन: सनातनधर्म का उद्धार करना अत्यन्त कठिन या असाध्य हो जायगा। अत: समय रहते "उत्तिष्ठत जाग्रत......