भारतीय ज्ञान परंपरा की वास्तविक दिशा

भारतीय ज्ञान परंपरा की वास्तविक दिशा

ऋषिहुड विश्वविद्यालय के अंतर्गत राष्ट्रं स्कूल ऑफ पब्लिक लीडरशिप द्वारा दिल्ली में आयोजित भारतीय ज्ञान परंपरा पर आधारित शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में श्री मुकुल कानिटकर द्वारा प्रदत्त दिक्सूची भाषण का लिखित रूप

         यह आनंद का विषय है कि अनादि काल से कल-कल छल-छल प्रवाहित सनातन गंगाधारा की ओर अब व्यवस्था का ध्यान गया है। निश्चित ही इससे व्यवस्था का ही भला होगा। इस सनातन ज्ञान परंपरा और ज्ञानधारा की हानि कोई राजसत्ता नहीं कर सकी। जब नादिरशाह और औरंगज़ेब इसे नहीं मिटा सके तो भला और कौन मिटाएगा? जब भारतीय शिक्षण मंडल ने 2016 में गुरुकुल प्रकल्प प्रारंभ किया, तब यह अहंकार और भ्रम था कि हम गुरुकुलों की रक्षा करेंगे। दो - चार सौ गुरुकुल होंगे, उनकी सूची बना लेते हैं। सूची बनाकर उनको CSR से कुछ दान का सहयोग कर देंगे, और गुरुकुल खड़े हो जाएंगे; ज्ञान परंपरा पुनर्जीवित हो जाएगी। जब अहंकार जगता है तब भारतमाता का प्रसाद मिलता है,जूते पड़ते हैं; तब पता चलता है कि हमारा अहंकार कितना खोखला है। दस हजार से अधिक गुरुकुल आज भी इस देश में चल रहे हैं। चार हज़ार की हम सूची बना चूके हैं। सूची अभी पूरी नहीं हुई है।

बेंगलुरु में रामचन्द्र भट्ट जी के सान्निध्य में एक ‘आचार्य स्वाध्याय वर्ग’ कर रहे थे। वहाँ गुरुकुल प्रकल्प के सह-प्रमुख आचार्य ज्ञानेन्द्र जी के साथ धनुर्वेद को पुनर्जीवित करने की योजना बना रहे थे। गुरुकुलों में वेद और संस्कृत का अध्ययन तो प्रचलित है किन्तु शिल्प, कला और धनुर्वेद को पुनर्जीवित करने हेतु इन विषयों के गुरुकुल आवश्यक हैं। धनुर्वेद के बिना वीरता नहीं आएगी और वीरव्रत के बिना राष्ट्रनिर्माण नहीं हो सकता। हमने एक योजना बनाई और सोचा कि धनुर्वेद के साहित्य, ग्रंथ खोजे जाएँ और यह भी खोजा जाए कि धनुर्वेद के आचार्य कहाँ मिलेंगे। यह बात सितंबर 2018 की है। इसके बाद अगला आचार्य स्वाध्याय वर्ग गुजरात के गांधीनगर में फरवरी 2019 में हुआ। लगभग 6 महीने बाद उस वर्ग में आचार्य ज्ञानेन्द्र जी ने बताया कि हम सितंबर माह में सोच रहे थे कि धनुर्वेद का एक अच्छा गुरुकुल खड़ा किया जाए। किन्तु काशी में अस्सी घाट से लेकर मणिकर्णिका घाट के मध्य, गंगा के किनारे धनुर्वेद के आचार्य और ग्रन्थों को खोजने के लिए प्रयत्न शुरू किया, तब केवल उन घाटों के बीच, दस-बारह किलोमीटर की परिधि में ही 150 धनुर्वेद के गुरुकुल मिल गए। यही स्थिति कला गुरुकुलों की है। थोड़ी खोज करने पर 250 से अधिक मूल ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं।

यह हमारा अज्ञान ही है कि हम सोचते हैं भारतीय ज्ञान परंपरा की हम सेवा करेंगे; भारतीय ज्ञान परंपरा से जुड़ने से हमारा कल्याण होगा। इसीलिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने, faculty development programme द्वारा आचार्यों को सौभाग्य दिया है कि वह इस सनातन ज्ञान परंपरा से जुड़कर स्वयं का कल्याण करें और सौभाग्यशाली हो जाए।

डॉक्टर कपिल कपूर जी ने कहा था, “जिन्हें इस (मेकॉले) शिक्षा का स्पर्श नहीं हुआ, वे वास्तविकता में सौभाग्यशाली हैं।” यह बात बिलकुल सत्य है। विष का स्पर्श मात्र भी कलुषित कर देता है और यहाँ कुछ लोगों ने तो उसमें PhD कर लिया है। अतः जो जितना पढ़ा है, उसे शुद्धि के लिए उतना अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। ऋषित्व लाने हेतु तप करना पड़ेगा। बिना तप के ऋषित्व संभव नहीं है।

भारतीय शिक्षण मंडल ने रिसर्च फॉर रिसर्जन्स फ़ाउंडेशन की स्थापना के समय बोधचिह्न (Logo) बनाया तब उसमें संस्कृत विचार लिखा गया। संस्कृत के विद्वानों से चर्चा हुई कि Research को संस्कृत में क्या कहेंगे? तब शोध,अनुसंधान, अन्वेषण, गवेषण ऐसे अनेक शब्द सामने आए। सबके अपने अर्थ हैं किंतु हमने विधि (methodology) को महत्व दिया क्योंकि प्रक्रिया (process) ठीक हो तो परिणाम ठीक होगा। अतः प्रयत्न हो कि प्रक्रिया शुद्ध हो जाएँ। भारत में साधन-शुचिता की बात की गयी है क्योंकि साधन शुद्ध होंगे तो परिणाम शुद्ध मिलेगा और साधन अशुद्ध होंगे तो चाहे जितना प्रयत्न करें, परिणाम शुद्ध नहीं मिल सकता। इसीलिए साधन-शुचिता महत्वपूर्ण है। अतः हमने रिसर्च का भी प्रक्रियामूलक अर्थ केंद्र में रखकर कार्य प्रारंभ किया और बोधचिन्ह में बोध-वाक्य डाला ‘तपोमूलं हि साधनम्’। यह महाभारत का वाक्य है। अर्जुन और कृष्ण के बीच भगवद्गीता का अनुवर्तन (revision) हो रहा है। इसलिए उसका नाम अनुगीता है। कुरुक्षेत्र युद्ध के इतने वर्षों बाद अर्जुन गीता को भूल गया है। भगवान से कह रहा है कि वह युद्ध का समय था इसलिए भूल गया हूँ, थोड़ा याद दिला दीजिए। अतः गीता का पुनःस्मरण चल रहा है।

अनुगीता में भगवान कहते हैं,

औषधान्यगदादीनि नाना विद्याश्च सर्वशः।

तपसैव प्रसिद्ध्यन्ति तपोमूलं हि साधनम्।। - महाभारत अश्वमेधपर्व (14)-51-18

औषधियों को बनाने का ज्ञान, निरोगी शरीर, कई प्रकार की विद्याएँ एवं अन्य सभी साधन तपस्या से ही प्राप्त होते हैं।

तपसैव प्रसिद्ध्यन्ति – सिद्धि को ‘प्र’ उपसर्ग लगा रहें हैं। प्रकर्षेण सिद्ध्यन्ति – अच्छी तरह से सिद्धि तप से ही प्राप्त होती है। इसीलिए 'तपोमूलं हि साधनं'। जीवन में जो भी पाना है वह तप के द्वारा पाया जा सकता है। रिसर्च का भारतीय शब्द है 'तप'। ऋषित्व को प्राप्त करने के लिए तप अनिवार्य है। अंग्रेज़ी में ऋषित्व को ऋषिहुड कहा गया है। अंग्रेजी में Hood (आवरण) लगा दिया। किंतु वास्तव में ‘हुड’ निकालने से ऋषित्व प्रकट होता है।

उपनिषद में कहा है,

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥ -ईशोपनिषद् 15

सत्य का मुख चमकीले सुनहरे ढक्कन से ढका है। हे पोषक सूर्यदेव! सत्य के विधान की उपलब्धि के लिए, साक्षात् दर्शन के लिए तू वह ढक्कन हटा दे।

जो ढक्कन, आवरण है – ‘अपिहितं’; उसे ‘तत् त्वं पूषन् अपावृणु’ हे पूषन्! हे विश्व का पोषण करनेवाले! तत् त्वं अपावृणु – उसे आप हटाओ। तब अंदर से सत्य और धर्म का दर्शन होगा। सत्य अर्थात् अंतिम ज्ञान (Ultimate Knowledge) और धर्म अर्थात् उसका व्यवहार (Application in Life) – सत्यधर्माय दृष्टये – यह हमारे उपनिषद की प्रार्थना है; यह विद्या का वास्तविक अर्थ है।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या प्रारूप (National Curriculum Framework) बनाने के लिए आधुनिक ऋषि डॉक्टर कस्तूरी रंगन जी के नेतृत्व में समिति बनी है। भारतीय शिक्षण मंडल ने सुझाव दिया कि सब से पहले विद्या की दिशा ठीक करने की आवश्यकता है – बाहर से अंदर नहीं, अंदर से बाहर ज्ञान की दिशा होती है। Not from Without but From Within. ज्ञान अंदर से बाहर अभिव्यक्त होता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है, “मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति ही विद्या है।” (Education is the Manifestation of perfection already within Man) ज्ञान अंदर से बाहर निकलना शिक्षा की प्रक्रिया है। यह पाठ्यचर्या में आने से ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) का उद्देश्य प्राप्त होगा।

भगिनी निवेदिता अपनी पुस्तक Notes on Education (Sister Nivedita complete works - Volume V) में भी यही लिखती हैं। शंकरीप्रसाद बसु ने भगिनी निवेदिता के समग्र साहित्य को एकत्रित कर बहुत बड़ा उपकार किया है। उसमें पश्चिम (West) और पूर्व (East) की शिक्षा में तुलना करते समय भगिनी निवेदिता कहती हैं, “पश्चिम जानकारियों, सूचनाओं को दिमाग में ठूसने की बात करता है।" (They Talk about stuffing Information in your Brain) इस faculty development programme में भगिनी निवेदिता का स्मरण प्रासंगिक है क्योंकि Margaret Elizabeth Noble हिन्दू ‘निवेदिता’ बनकर, सच्चे अर्थों में निवेदित, पूरी तरह से समर्पित होकर भारत के बारे में कह रही है, “हम ग्रहणक्षमता के विकास को सर्वाधिक महत्व देते हैं। (We Hindus say, The Most Important thing is to Develop Faculty) यहाँ निवेदिता faculty शब्द का प्रयोग शिक्षक के रूप में नहीं कर रही है। यहाँ Faculty का अर्थ है सहजता से कार्य करने की क्षमता। (The Ability to Do Things Easily) जब किसी भी कार्य में सहजता आ जाती है तब उसे नैपुण्य कहते हैं। (When one Becomes Effortless in anything, then Expertise is achieved) इंद्रिय तथा अंतःकरण की शक्ति का विकास करना, (Cultivating power of Faculty) ज्ञानशक्ति का जागरण करना (Invoking the power of Knowledge), ज्ञान साक्षात्कार की शक्ति का विकास (Developing power of knowledge Realization) ज्ञान के साथ और किसी क्रिया का प्रयोग उचित नहीं है। (no other verb is suitable to be associated with Knowledge) ज्ञान का ना तो निर्माण अथवा रचना सम्भव है ना ही प्रदान अथवा प्राप्त करना, ज्ञान का मात्र साक्षात्कार संभव है। (Knowledge can neither be created, imparted nor gained. Only one verb can be associated with knowledge and that is – Realization) ज्ञान का केवल और केवल साक्षात्कार होता है। साक्षात्कार अनुभूति से होता है।

नृत्य साधना से डॉक्टर सोनल मानसिंह जी ने उस अनुभूति को स्पर्श किया जिससे शरीर के इंद्रियगम्य (Tangible) साधन से अगम्य को अभिव्यक्त करने की सिद्धि प्राप्त हुई है। यह वास्तविक क्षमता विकास है। इंद्रियों की सीमा ज्ञान-साक्षात्कार में बाधा नहीं रह जाती। (That is real faculty development. Even your faculty does not remain an impediment in realization of knowledge)

चक्षु दृष्टि की मर्यादा नहीं बनते। उस अमर्याद के दर्शन करने की क्षमता जब दृष्टि में आती है, तब वह क्षमता विकास (Faculty development) कहलाता है। यही वास्तविक शिक्षा है। (That is Education) श्रवण इंद्रिय, श्रुति शक्ति, शब्द को ग्रहण करने की क्षमता सीमित है। लय मर्यादा (Spectrum of Frequency), जिसे श्रवण लय (Sonar Frequency) कहते हैं, उससे ऊपर (Super-Sonic) और नीचे (Sub Sonic) लय को हम नहीं सुन सकते। जो चमगादड़ या कुत्ता सुन सकता है, उस लय की ध्वनि को मनुष्य नहीं सुन सकते। यह हमारी श्रवणेंद्रिय की भौतिक, शारीरिक, ऐंद्रिक मर्यादा है, उस से परे जाकर, जो परा-वाणी के अनहद नाद को सुनने की क्षमता विकसित करता है, उसे क्षमता विकास (faculty development) कहते हैं। भगिनी निवेदिता ने शिक्षा की यह परिभाषा की है।

गुरुकुल बनाने का काम मंत्रियों के हाथ में नहीं है। विद्यालयों को गुरुकुल बनाने का कार्य गुरुओं के हाथ में है। गुरु बनेंगे, तो गुरुकुल बनेंगे। इसलिए Faculty Development Programme यह गुरुत्व के निर्माण का कार्यक्रम बनना चाहिए, तब वह भारतीय ज्ञान परंपरा पर आधारित FDP होगा। हमें आचार्यों की शिक्षा दृष्टि और दृष्टिकोण में पूर्ण परिवर्तन करना होगा। (We have to Change the whole Perspective and Vision of Education in the Mind and Conduct of the Gurus, The Acharyas.) Teacher शब्द ही गलत है; शिक्षक नहीं आचार्य, गुरु। इसीलिए टीचर शब्द का प्रयोग ही उचित नहीं है क्योंकि उपदेश से ज्ञान नहीं होता और Teaching का अर्थ होता है ‘उपदेश’। संस्कृत में Teaching के लिए कोई शब्द नहीं है। शिक्षा शब्द का भी अर्थ Teaching नहीं होता है। शिक्षा शब्द का अर्थ है – उच्चारण शुद्धि। ज्ञान को अभिव्यक्त करने के लिए आवश्यक स्वरयंत्र की साधना को हमारे यहाँ ‘शिक्षा’ कहा गया है।

तैत्तिरीय उपनिषद में ‘शिक्षावल्ली’ अनुवाक में शिक्षा की परिभाषा है – मन में जो विचार आ रहे हैं, उस का संप्रेषण करने जैसी समर्थ और शुद्ध वाणी की साधना। उसी को संस्कृत में कहते हैं – सम्यक कृत। जो अंदर है वही प्रकट हो ऐसी वाणी की साधना। प्राणाघात और पदाघात से होनेवाले उच्चारणों से जब पदार्थ साक्षात् हो जाए, तब कश्मीर से कन्याकुमारी तक भाषा बाधा नहीं बनती है – न विवेकानंद के लिए, न शंकराचार्य के लिए। क्योंकि प्राणाघात और पदाघात की साधना से वाणी शुद्ध संप्रेषण और संवाद करने लगती है। इसे ही शिक्षा कहते हैं। Teaching is not शिक्षा। Teaching के लिए निकट संस्कृत शब्द उपदेश है। जब हम किसी का उपदेश नहीं मानते तब विद्यार्थी कैसे मानेंगे? अतः अध्ययन ही संभव है। There is No Possibility of Teaching. Only Learning is Possible. अध्ययन में सहयोग को ही अध्यापन कहते हैं। अध्ययन ऐंद्रिय क्षमता पर निर्भर करता है। Learning is the Capacity of the Faculties. That is why the faculties have to be Developed. अतः इंद्रिय क्षमता के विकास पर कार्य हो।

भारतीय ज्ञान परंपरा का अर्थ केवल पुरातन ज्ञान को परोसना नहीं है। सनातन जीवनदृष्टि को युगानुकूल, देशानुकूल परिभाषा में पुनर्भाषित करते हुए आज के समय में लागू करने का नाम 'भारतीय ज्ञान परंपरा' है। केवल पुरातन की चर्चा करेंगे तो परंपरा नहीं हुई। Parampara is Continuous Tense. परंपरा सतत चलती है, निरंतर, बिना बाधा अखंड एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अत्यंत सहजता से दी और ली जाती है। परंपरा अनायास वातावरण के संस्कार से, अंदर से मुकुलित होती है, सहज संस्कारों से चलती है। If you are Talking about Only Past Tense, You are not Talking about Parampara. यदि केवल भूतकाल में ही बात कर रहे हैं तो परंपरा की बात नहीं हैं। Tradition, Custom कह सकते हैं, किन्तु परंपरा नहीं। परंपरा सातत्य का नाम है। यह शाश्वत, सनातन हिन्दू धर्म अनेक वर्षों के आघातों, आक्रमणों और राजनैतिक परतंत्रता के बाद भी जीवंत इसीलिए है क्योंकि यहाँ के घर-घर में, गाँव-गाँव में कोटी-कोटी परिवारों ने अद्वैत सिद्धान्त को अपने जीवन में उतारकर परंपरा से अपने पुत्र/पुत्री को संस्कार दिया है। संस्कृत में गुरु शब्द का पर्यायवाची पिता है, शिष्य का पर्यायवाचक शब्द पुत्र है। पिता अर्थात् पालनकर्ता (parent) इसलिए माता भी गुरु है। स्वयं को पूछना होगा – क्या एक गुरु के नाते हमने अभिभावकत्व ग्रहण किया है?

चाणक्य चन्द्रगुप्त की माता को कहते हैं, “तूने नौ महीने गर्भ धारण करके एक संभावना को जन्म दिया है। आचार्य के नाते अब मैं इसे बारह वर्ष गर्भ में धारण करूंगा और उस संभावना को संभव बनाऊँगा।” इसलिए गुरु का सर्वोत्तम आदर्श माता है। संत ज्ञानेश्वर को महाराष्ट्र में ‘माउली’ कहते हैं। माउली का अर्थ है ‘माँ’ क्योंकि गुरु का अत्युच्च आदर्श माँ है। गुरु को भी गर्भधारण करना पड़ता है। ऐसे गर्भधारण करनेवाले गुरुओं का निर्माण करने के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा पर आधारित Faculty Development Programme है। आयोजक भी ऋषित्व का धारण करनेवाले विश्वविद्यालय का ‘राष्ट्रं नीति अध्ययन केंद्र’ है। अपने तेज, आलोक से विराजित हो उसे ‘राष्ट्र’ कहते हैं। That which is Glorious from Within is Rashtra. संस्कृत में क्रिया है – राडयति।

पूजा के अंत में मंत्र पुष्पांजलि में बोलते हैं –

ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात् सार्वभौम: सार्वायुषान्तादापरार्धात्। पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकराडिती।

- ऐतरेय ब्राह्मण, ऋग्वेद (पंचिका 8 कांड 15)

हमारा राज्य सर्व कल्याणकारी राज्य हो। हमारा राज्य सर्व उपभोग्य वस्तुओं से परिपूर्ण हो। यहाँ लोकराज्य हो। हमारा राज्य आसक्तिरहित, लोभरहित हो। ऐसे परमश्रेष्ठ महाराज्य पर हमारी अधिसत्ता हो। हमारा राज्य क्षितिज की सीमा तक सुरक्षित रहें। समुद्र तक फैली पृथ्वी पर हमारा दीर्घायु अखंड राज्य हो। हमारा राज्य सृष्टि के अंत तक सुरक्षित रहें।

एकराट् इति। ‘राट्’ धातु से राष्ट्र बना। एक चैतन्य की एकात्मता जब पूर्ण आलोक के साथ पूरे विश्व के सामने अपने आप को प्रकट करती है तब उसे राष्ट्र कहते हैं। ‘त्र’ लगने से अर्थ होता है प्रकर्ष से। चर अर्थात् चलना। ‘चर’ में ‘त्र’ लगने से वह चरित्र बनता है, अच्छे से चलना। राष्ट्र अर्थात् पूर्णत्व से आलोकित होना। एक जुगनू भी अपने प्रकाश से आलोकित होता है। किंतु अपने प्रकाश से आलोकित होनेवाले मनुष्य को ‘व्यक्ति’ कहते हैं। व्यक्ति तप से बनता है। जब पूरा समाज एक ध्येय के प्रति तप करता हुआ स्वयं के ज्ञान और पराक्रम से एकमन से गौरवान्वित होता है तब उसे राष्ट्र के रूप में सम्बोधित करते हैं। राष्ट्रनिर्माण के लिए सब को ऋषि बनना पड़ेगा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति ऋषियों ने बनाई है, तो ऋषियों को ही क्रियान्वित करनी होगी। शिक्षक जब तक ऋषि नहीं बनेगा, तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति केवल 66 पन्नों में बनी रहेगी। यह मंत्रियों के हाथ में नहीं है,मंत्री नहीं कर सकते से तात्पर्य यह है कि ऋषि तो गुरु या शिक्षक बनेगा तब राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होगी। तब वह राष्ट्रीय होगी और तब भारत का अर्थ केवल भौगोलिक नहीं रह जाएगा। भारतीय ज्ञान परंपरा को अंग्रेजी में भी Bharatiya Knowledge System ही कहना उचित है। IKS नहीं, BKS. Bharatiya Knowledge System ही हो सकता है क्योंकि सिंधु को Indus कहते थे और Indus से Indiaआया। यह तो केवल भौगोलिक अर्थ हुआ। भारतीय ज्ञान परंपरा का ‘भारत’ शब्द भौगोलिक नहीं, सांस्कृतिक है; मूल्यवर्धक और चारित्र्यिक है। एक बहुत बड़ी परंपरा है, जिस के अंदर मंगोलिया और रूस भी आता है।

ICCR की ओर से भारत का एक अध्ययन दल रुस गया था। माननीय श्री सुरेश सोनी जी भी गए थे। साइबेरिया की सीमा पर भारतीय संस्कृति के पदचाप देखकर आए हैं। बाली, सुमात्रा जैसे केवल सुदूर पूर्व की ओर ही नहीं, विदेश जानेवाले बताते हैं कि यूक्रेन, तुर्कमेनिस्तान, कज़ाकिस्तान जैसे हिमालय पार, उत्तर में भी भारत की सीमाएँ कहाँ तक थी, पता नहीं है। पश्चिम में भी कहाँ तक थीं पता नहीं। इसलिए भारतीय ज्ञान परंपरा में भौगोलिक भारत का नहीं, सांस्कृतिक भारत का संदर्भ है। सांस्कृतिक भारत के लिए अंग्रेजी में भी Bharatiya Knowledge System ही कहना पड़ेगा। भारतीय ज्ञान परंपरा का अंग्रेजी अनुवाद Bharatiya Knowledge System होगा Indian Knowledge System नहीं।

BKS के अंतर्गत इस faculty development programme में ऋषि तैयार करने का काम हम सब लोग कर सके उस हेतु हमारे जीवन में तप आएँ, हम सभी अपने जीवन में तपस्वी बनें, आवश्यक तपस्या करने के लिए तत्पर हो, इतनी सी प्रार्थना है।

भाषण में ऊद्धृत श्लोकों का  संदर्भ

1.   औषधान्यगदादीनि नाना विद्याश्च सर्वशः।

तपसैव प्रसिद्ध्यन्ति तपोमूलं हि साधनम्।।  - महाभारत अश्वमेधपर्व (14)-51-18

औषधियों को बनाने का ज्ञान, निरोगी शरीर, कई प्रकार की विद्याएँ एवं अन्य सभी साधन तपस्या से ही प्राप्त होते हैं।

2.    हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌

तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।  - ईशावास्य उपनिषद् - 15

सत्य का मुख चमकीले सुनहरे ढक्कन से ढका है; हे पोषक सूर्यदेव! सत्य के विधान की उपलब्धि के लिए, साक्षात् दर्शन के लिए तू वह ढक्कन हटा दे।

3. मंत्र पुष्पांजलि

ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात सार्वभौम: सार्वायुषान्तादापरार्धात्। पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकराडिती। - ऐतरेय ब्राह्मण, ऋग्वेद (पंचिका 8 कांड 15)

हमारा राज्य सर्व कल्याणकारी राज्य हो। हमारा राज्य सर्व उपभोग्य वस्तुओं से परिपूर्ण हो। यहाँ लोकराज्य हो। हमारा राज्य आसक्तिरहित, लोभरहित हो। ऐसे परमश्रेष्ठ महाराज्य पर हमारी अधिसत्ता हो। हमारा राज्य क्षितिज की सीमा तक सुरक्षित रहें। समुद्र तक फैली पृथ्वी पर हमारा दीर्घायु अखंड राज्य हो। हमारा राज्य सृष्टि के अंत तक सुरक्षित रहें।

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